बरसात का कहर इसी साल नहीं बरप रहा है बल्कि हर साल ही बरपता है। फर्क इतना होता है कि किसी साल अधिक तो कभी कम। कहीं ज्यादा तो कहीं कम। चाहे पहाड़ी इलाके हों या मैदानी, बरसात के मौसम में किसी न किसी कोने से अतिवृष्टि, बाढ़, बादल फटना, भूस्खलन, भू-कटाव जैसी आपदाएं आती ही रहती हैं। जिससे जान-माल, पशुधन, खेती व अन्य प्रकार का भारी नुकसान होता है। मौसम कब अपना रुख बदल दे, कब कौन-सी प्राकृतिक आपदा आ जाए पता नहीं चलता। हालांकि, मौसम विभाग समय-समय पर सूचनाएं जारी कर लोगों को सचेत करता रहता है परंतु कई बार मौसम की भविष्यवाणी भी सटीक नहीं बैठती। आज प्रकृति के प्रति मनुष्य जो बेरुखी अपनाए हुए है उसका नकारात्मक प्रभाव तो पड़ना ही पड़ना है। आपदा का दोष अकेले ही प्रकृति पर नहीं मढ़ा जा सकता। प्रकृति तो अपने अनुरूप अपना कार्य करती है। मनुष्य जब उसकी राह में बाधा बनता है तो उसे हटाने के लिए वह किसी न किसी रूप में अपना विकराल रूप दिखाती है। तब पलक झपकते ही सबकुछ धराशायी हो जाता है। बेशक, मनुष्य विज्ञान के युग में जी रहा है लेकिन मूल आधार तो प्रकृति ही है।
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जब तक प्रकृति के प्रति सकारात्मक रवैया नहीं अपनाया जाएगा, उसका संरक्षण नहीं किया जाएगा, उसकी अहमियत नहीं समझेंगे तब तक गंभीर परिणाम भुगतने ही पड़ेंगे।बरसात के मौसम में एक समस्या शहरों में सबसे ज्यादा होती है। वह है जलभराव। अनियोजित ढंग से शहरों का विकास होने के कारण यह स्थिति बनती है। महानगर से लेकर छोटे शहर बरसात के मौसम में ताल-तल्लैया बन जाते हैं। कुछ दिन पहले देश की राजधानी दिल्ली में जल भराव के चलते जो दुर्घटना घटी वह काफी चिंताजनक है। पहाड़ों में इस मौसम में आपदा का कोई भरोसा नहीं। 31 जुलाई को केदारनाथ में जिस प्रकार से आपदा आई उसने 2013 के जल-प्रलय की याद दिला दी। आपदाओं से कुछ हद तक बचाव किया जा सकता है लेकिन उसके लिए जागरूक होना जरूरी है।