Ganesh Chalisa | Ganesh Chalisa Lyrics |

Updated: 19/07/2023 at 2:17 PM
Ganesh Chalisa

Ganesh Chalisa : हिन्दू धर्म में भगवान श्री गणेश को प्रथम पूज्य माना गया है |और इनको मंगलकारी माना जाता है। भगवान गणेश की पूजा हर कार्य के आरम्भ में की जाती है जिससे सभी कार्यों में सफलता मिलती है। भगवान गणेश की आराधना करने पर घर में खुशहाली और सुख समृधि आती है, व्यापार में उन्नति होती है और कार्य में सफलता प्राप्त होती है। जीवन में शुभ फल पाने के लिए रोज Ganesh Chalisa का पाठ अवश्य करना चाहिए। Ganesh Chalisa  एक धार्मिक भजन है जो भगवान गणेश को समर्पित है।

दोहा जय गणपति सदगुणसदन, कविवर बदन कृपाल।
विघ्न हरण मंगल करण, जय जय गिरिजालाल॥

अर्थ – हे सद्गुणों के सदन भगवान श्री गणेश आपकी जय हो, कवि भी आपको कृपालु बताते हैं। आप कष्टों का हरण कर सबका कल्याण करते हो, माता पार्वती के लाडले श्री गणेश जी महाराज आपकी जय हो।

चौपाई जय जय जय गणपति गणराजू।
मंगल भरण करण शुभ काजू॥1॥


अर्थ –  हे देवताओं के स्वामी, देवताओं के राजा, हर कार्य को शुभ व कल्याणकारी करने वाले भगवान श्री गणेश जी आपकी  जय हो, जय हो, जय हो।

जय गजबदन सदन सुखदाता।
विश्व विनायक बुद्घि विधाता॥2॥

वक्र तुण्ड शुचि शुण्ड सुहावन।
तिलक त्रिपुण्ड भाल मन भावन॥3॥


अर्थ – घर-घर सुख प्रदान करने वाले हे हाथी से विशालकाय शरीर वाले गणेश भगवान आपकी जय हो। श्री गणेश आप समस्त विश्व के विनायक यानि विशिष्ट नेता हैं, आप ही बुद्धि के विधाता है बुद्धि देने वाले हैं। हाथी के सूंड सा मुड़ा हुआ आपका नाक सुहावना है पवित्र है। आपके मस्तक पर तिलक रुपी तीन रेखाएं भी मन को भा जाती हैं अर्थात आकर्षक हैं।

राजत मणि मुक्तन उर माला। स्वर्ण मुकुट शिर नयन विशाला॥4॥
पुस्तक पाणि कुठार त्रिशूलं। मोदक भोग सुगन्धित फूलं॥5॥

अर्थ – आपकी छाती पर मणि मोतियां की माला है आपके शीष पर सोने का मुकुट है व आपकी आखें भी बड़ी बड़ी हैं। आपके हाथों में पुस्तक, कुठार और त्रिशूल हैं। आपको मोदक का भोग लगाया जाता है व सुगंधित फूल चढाए जाते हैं।

सुन्दर पीताम्बर तन साजित। चरण पादुका मुनि मन राजित॥6॥
धनि शिवसुवन षडानन भ्राता। गौरी ललन विश्व-विख्याता॥7॥

अर्थ – पीले रंग के सुंदर वस्त्र आपके तन पर सज्जित हैं। आपकी चरण पादुकाएं भी इतनी आकर्षक हैं कि ऋषि मुनियों का मन भी उन्हें देखकर खुश हो जाता है। हे भगवान शिव के पुत्र व षडानन अर्थात कार्तिकेय के भ्राता आप धन्य हैं। माता पार्वती के पुत्र आपकी ख्याति समस्त जगत में फैली है।

ऋद्घि-सिद्घि तव चंवर सुधारे। मूषक वाहन सोहत द्घारे॥8॥
कहौ जन्म शुभ-कथा तुम्हारी। अति शुचि पावन मंगलकारी॥9॥

अर्थ – ऋद्धि-सिद्धि आपकी सेवा में रहती हैं व आपके द्वार पर आपका वाहन मूषक खड़ा रहता है। हे प्रभु आपकी जन्मकथा को कहना व सुनना बहुत ही शुभ व मंगलकारी है।

एक समय गिरिराज कुमारी। पुत्र हेतु तप कीन्हो भारी॥10॥
भयो यज्ञ जब पूर्ण अनूपा। तब पहुंच्यो तुम धरि द्घिज रुपा॥11॥

अर्थ – एक समय गिरिराज कुमारी यानि माता पार्वती ने पुत्र प्राप्ति के लिए भारी तप किया। जब उनका तप व यज्ञ अच्छे से संपूर्ण हो गया तो ब्राह्मण के रुप में आप वहां उपस्थित हुए।

अतिथि जानि कै गौरि सुखारी। बहुविधि सेवा करी तुम्हारी॥12॥
अति प्रसन्न है तुम वर दीन्हा। मातु पुत्र हित जो तप कीन्हा॥13॥ 

अर्थ – आपको अतिथि मानकार माता पार्वती ने आपकी अनेक प्रकार से सेवा की, जिससे प्रसन्न होकर आपने माता पार्वती को वर दिया।

मिलहि पुत्र तुहि, बुद्धि विशाला। बिना गर्भ धारण, यहि काला॥14॥
गणनायक, गुण ज्ञान निधाना। पूजित प्रथम, रुप भगवाना॥15॥

अर्थ – आपने कहा कि हे माता आपने पुत्र प्राप्ति के लिए जो तप किया है, उसके फलस्वरूप आपको बहुत ही बुद्धिमान बालक की प्राप्ति होगी और बिना गर्भ धारण किए इसी समय आपको पुत्र मिलेगा। जो सभी देवताओं का नायक कहलाएगा, जो गुणों व ज्ञान का निर्धारण करने वाला होगा और समस्त जगत भगवान के प्रथम रुप में जिसकी पूजा करेगा।

Ganesh Chalisa























अस कहि अन्तर्धान रुप है। पलना पर बालक स्वरुप है॥16॥
बनि शिशु, रुदन जबहिं तुम ठाना। लखि मुख सुख नहिं गौरि समाना॥17॥

अर्थ – इतना कहकर आप अंतर्धान हो गए व पालने में बालक के स्वरुप में प्रकट हो गए। माता पार्वती के उठाते ही आपने रोना शुरु किया, माता पार्वती आपको गौर से देखती रही आपका मुख बहुत ही सुंदर था माता पार्वती में आपकी सूरत नहीं मिल रही थी।
सकल मगन, सुखमंगल गावहिं। नभ ते सुरन, सुमन वर्षावहिं॥18॥
शम्भु, उमा, बहु दान लुटावहिं। सुर मुनिजन, सुत देखन आवहिं॥19॥

अर्थ – सभी मगन होकर खुशियां मनाने लगे नाचने गाने लगे। देवता भी आकाश से फूलों की वर्षा करने लगे। भगवान शंकर माता उमा दान करने लगी। देवता, ऋषि, मुनि सब आपके दर्शन करने के लिए आने लगे।

लखि अति आनन्द मंगल साजा। देखन भी आये शनि राजा॥20॥
निज अवगुण गुनि शनि मन माहीं। बालक, देखन चाहत नाहीं॥21॥

अर्थ – आपको देखकर हर कोई बहुत आनंदित होता। आपको देखने के लिए भगवान शनिदेव भी आये। लेकिन वह मन ही मन घबरा रहे थे और बालक को देखना नहीं चाह रहे थे।

गिरिजा कछु मन भेद बढ़ायो। उत्सव मोर, न शनि तुहि भायो॥22॥
कहन लगे शनि, मन सकुचाई। का करिहौ, शिशु मोहि दिखाई॥23॥

अर्थ – शनिदेव को इस तरह बचते हुए देखकर माता पार्वती नाराज हो गई व शनि को कहा कि आप हमारे यहां बच्चे के आने से व इस उत्सव को मनता हुआ देखकर खुश नहीं हैं। इस पर शनि भगवान ने कहा कि मेरा मन सकुचा रहा है, मुझे बालक को दिखाकर क्या करोगी? कुछ अनिष्ट हो जाएगा।

नहिं विश्वास, उमा उर भयऊ। शनि सों बालक देखन कहाऊ॥24॥
पडतहिं, शनि दृग कोण प्रकाशा। बोलक सिर उड़ि गयो अकाशा॥25॥

अर्थ – लेकिन इतने पर माता पार्वती को विश्वास नहीं हुआ व उन्होंनें शनि को बालक देखने के लिए कहा। जैसे ही शनि की नजर बालक पर पड़ी तो बालक का सिर आकाश में उड़ गया।

गिरिजा गिरीं विकल हुए धरणी। सो दुख दशा गयो नहीं वरणी॥26॥
हाहाकार मच्यो कैलाशा। शनि कीन्हो लखि सुत को नाशा॥27॥

अर्थ – अपने शिशु को सिर विहिन देखकर माता पार्वती बहुत दुखी हुई व बेहोश होकर गिर गई। उस समय दुख के मारे माता पार्वती की जो हालत हुई उसका वर्णन भी नहीं किया जा सकता। इसके बाद पूरे कैलाश पर्वत पर हाहाकार मच गया कि शनि ने शिव-पार्वती के पुत्र को देखकर उसे नष्ट कर दिया।

तुरत गरुड़ चढ़ि विष्णु सिधायो। काटि चक्र सो गज शिर लाये॥28॥
बालक के धड़ ऊपर धारयो। प्राण, मंत्र पढ़ि शंकर डारयो॥29॥

अर्थ – उसी समय भगवान विष्णु गरुड़ पर सवार होकर वहां पंहुचे व अपने सुदर्शन चक्कर से हाथी का शीश काटकर ले आये। इस शीष को उन्होंनें बालक के धड़ के ऊपर धर दिया। उसके बाद भगवान शंकर ने मंत्रों को पढ़कर उसमें प्राण डाले।
नाम गणेश शम्भु तब कीन्हे। प्रथम पूज्य बुद्घि निधि, वन दीन्हे॥30॥
बुद्धि परीक्षा जब शिव कीन्हा। पृथ्वी कर प्रदक्षिणा लीन्हा॥31॥
अर्थ – उसी समय भगवान शंकर ने आपका नाम गणेश रखा व वरदान दिया कि संसार में सबसे पहले आपकी पूजा की जाएगी। बाकि देवताओं ने भी आपको बुद्धि निधि सहित अनेक वरदान दिये। जब भगवान शंकर ने कार्तिकेय व आपकी बुद्धि परीक्षा ली तो पूरी पृथ्वी का चक्कर लगा आने की कही।

चले षडानन, भरमि भुलाई। रचे बैठ तुम बुद्घि उपाई॥32॥
धनि गणेश कहि शिव हिय हरषे। नभ ते सुरन सुमन बहु बरसे॥33॥

अर्थ – चरण मातु-पितु के धर लीन्हें। तिनके सात प्रदक्षिण कीन्हें॥34॥ आदेश होते ही कार्तिकेय तो बिना सोचे विचारे भ्रम में पड़कर पूरी पृथ्वी का ही चक्कर लगाने के लिए निकल पड़े, लेकिन आपने अपनी बुद्धि लड़ाते हुए उसका उपाय खोजा। आपने अपने माता पिता के पैर छूकर उनके ही सात चक्कर लगाये।

तुम्हरी महिमा बुद्धिध बड़ाई। शेष सहसमुख सके न गाई॥35॥
मैं मतिहीन मलीन दुखारी। करहुं कौन विधि विनय तुम्हारी॥36॥

अर्थ – हे भगवान श्री गणेश आपकी बुद्धि व महिमा का गुणगान तो हजारों मुखों से भी नहीं किया जा सकता। हे प्रभु मैं तो मूर्ख हूं, पापी हूं, दुखिया हूं मैं किस विधि से आपकी विनय आपकी प्रार्थना करुं।

भजत रामसुन्दर प्रभुदासा। जग प्रयाग, ककरा, दुर्वासा॥37॥
अब प्रभु दया दीन पर कीजै। अपनी भक्ति शक्ति कछु दीजै॥38॥
अर्थ –  हे प्रभु आपका दास रामसुंदर आपका ही स्मरण करता है। इसकी दुनिया तो प्रयाग का ककरा गांव हैं जहां पर दुर्वासा जैसे ऋषि हुए हैं। हे प्रभु दीन दुखियों पर अब दया करो और अपनी शक्ति व अपनी भक्ति देनें की कृपा करें।

दोहा श्री गणेश यह चालीसा।
पाठ करै कर ध्यान
नित नव मंगल गृह बसै।
लहे जगत सन्मान॥

सम्वत अपन सहस्त्र दश, ऋषि पंचमी दिनेश।रण चालीसा भयो, मंगल मूर्ति गणेश॥

अर्थ – श्री गणेश की इस चालीसा का जो ध्यान से पाठ करते हैं।उनके घर में हर रोज सुख शांति आती रहती है उसे जगत में अर्थात अपने समाज में प्रतिष्ठा भी प्राप्त होती है ! सहस्त्र यानि हजारों संबंधों का निर्वाह करते हुए भी ऋषि पंचमी के दिन भगवान श्री गणेश की यह चालीसा पूरी हुई ! 

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First Published on: 18/07/2023 at 10:22 AM
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