कहते हैं लेखन मर्म से जुड़ा होता है। जो महसूस किया वही काग़ज़ पर उतरा। यह अनुभूति कभी -कभी खुद के साथ भुगते होने का अहसास करा देते हैं और तभी हृदय की पीड़ा शब्दों के माध्यम से सृजन बन काग़ज़ को रंग देते हैं। एक सम्वेदनशील व्यक्ति दूसरे के दर्द को महसूस कर उसे अपनी भावनाओं का एक अंग बना लेता है। मुझे याद है बचपन में अक्सर यह सुना करती थी कि “-ऐसे मत बोलो तुम लड़की हो, वहाँ मत जाओ -तुम लड़की हो, ढंग के कपड़े पहनो …वगैरह-वगैरह। हालाँकि हमारे घर का माहौल पूरी तरह प्रजातांत्रिक था।खेलने- कूदने, पढ़ने की पूरी आजादी थी। हम पाँच बहनों को कभी भी एकलौते भाई से कम तरज़ीह दी गई हो ,ऐसा भी कोई वाक्या याद नही । परन्तु बचपन में देखी -सुनी गई डिस्क्रिमिनेशन का ऐसा प्रभाव पड़ा कि मन नारी मुक्ति के आंदोलन के लिए चीत्कार कर उठा और यह मेरे लेखन का प्रिय विषय बन गया। मन छटपटाता है कि इस विषय पर ज्यादा से ज्यादा लिखकर लड़कियों को -“तुम लड़की हो ” के इस जुमले से हमेशा -हमेशा के लिए आज़ाद करा दूँ। सवाल उठता है कि क्या लड़की होना कोई गुनाह है !!! फिर ऐसी बात क्यों ?वास्तव में यह एक मानसिकता है जो पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है और पढ़े- लिखे हों या अनपढ़ ; बिना इस पर कोई विचार किये धड़ल्ले से इस जुमले को अपनी शक्ति या हथियार के रूप में उछाल देते हैं। वे यह भी नहीं सोचते होंगे कि उनके इस एक वाक्य से लड़कियाँ कितनी मर्माहत होती होंगी !! यह एक वाक्य उसके पूरे अस्तित्व को तोड़ कर उसका आत्म विश्वास डगमगा देता हैवास्तव में यदि हम इस मानसिकता की जड़ में जाएँ तो ऐसा लगता है कि ये सिर्फ पुरुष सत्तात्मक समाज की मानसिकता नहीं है बल्कि कुछ तो भारतीय परम्परा से जुड़ा है और कुछ उसी परम्परा की विकृति है जो कालांतर में जन्म लेती गई। हमारे समाज में स्त्री और पुरुषों के लिए काम का बंटवारा किया गया था। पुरूष बाहर कमाने जाते और स्त्रियाँ घर सम्भालती। अतः स्त्रीयों के लिए यही नियम बन गया । घर की चारदीवारी में रहकर जीवन बिताना। आगे चलकर स्त्रियों के लिए यही मानदण्ड स्थापित कर दिए गए । इसी के तहत इस नियम को न मानने पर उन्हें दण्डित भी किया जाता। धीरे-धीरे यह मानसिकता ज़ोर पकड़ती गई।
हालाँकि शिक्षा के विकास के साथ उच्च शिक्षित परिवारों में इस तरह की प्रवृत्ति देखने को नहीं मिलती है , किन्तु अभी भी इनकी संख्या अपेक्षाकृत अधिक है। सदियों से लोगों के मस्तिष्क में जड़ जमा चुकी यह मानसिकता क्या कभी खत्म होगी !!! हम आशा कर सकते हैं…
पूनम…✍️
हजारीबाग, झारखण्ड