कहते हैं देश का युवा वर्ग देश का भविष्य है। यह वर्ग जितना स्वस्थ और समझदार होगा , देश उतनी तरक्की करेगा । यही वो उम्र होती है जिसमें सबसे ज्यादा उत्साह, शक्ति एवम सृजनात्मकता होती है। देश अपनी युवा पीढ़ी के कंधे के सहारे आगे बढ़ता है । लेकिन आज की युवा पीढ़ी का जो चेहरा सामने आ रहा है वो फ्रस्ट्रेशन से भरा हुआ है। बरसाती नदियों की तरह उफान मारता जोश और अनेक प्रकार के विपरीत भावों को लिए तीव्रता से आगे बढ़ता यह वर्ग किसी ठहराव की अपेक्षा ही नहीं करता , अलबत्ता खुद को साबित करने में अक्सर गलत राह का चुनाव कर लेता है। कभी-कभी तो इनका फ्रस्ट्रेशन इतना बढ़ जाता है कि ये मानसिक संतुलन खो देते हैं और नतीजा आत्महत्या जैसी घटनाएं सामने आती हैं। वर्तमान समय की ये एक ज्वलन्त समस्या है जिस पर विचार करना और समाधान ढूँढना अत्यावश्यक है।
अपंग होती युवा पीढ़ी के स्वास्थ्य की चिंता आज की पहली माँग है , परन्तु उससे भी ज्यादा विचारणीय इसका कारण ढूँढना है ।
क्योंकि कारण में ही समाधान निहित होता है।
अपनी उत्कृष्ट सभ्यता एवं संस्कृति के लिए जिस भारत को विश्व गुरु कहा गया ; वह अपने बच्चों की परवरिश में कहाँ चूक गया ! इसके मूल में संस्कार की चूक है या बदलता माहौल ? शायद बदलता माहौल इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार है , क्योंकि तेजी से बदलते परिवेश ने ही परिवार का विघटन किया और संयुक्त परिवार एकल बन गया जहाँ किसी के पास किसी के लिए कोई वक्त नहीं है। परिवार का हर सदस्य इलेक्ट्रॉनिक गैजेट के साथ समय बिता रहा है । आज बच्चों की ख्वाहिशें तो पूरी होती हैं पर सम्वेदनाएँ सूखी पड़ जाती हैं। ऐसे में एकल परिवार , बच्चों की पूरी होती हर ख्वाहिश, उनका अकेलापन , पेरेंट्स की महत्वाकांक्षा ऐसी कुछ परिस्थितियां है , जिनमें बच्चे दिग्भ्रमित हो जाते हैं और अनजाने में आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं।
जैसे-जैसे परिवेश बदला; समाज का ढाँचा बदलता गया।दादा-दादी की जगह नैनी बच्चे को पालने लगी। माता-पिता दिन भर के काम से थके-मांदे लौटे तो उन्हें इतनी फुर्सत नहीं कि बच्चे से दो-चार बातें ही कर ले।नानी-दादी की कहानियों की जगह मोबाइल , कम्प्यूटर और इलेक्ट्रॉनिक गेम आ गए। इन टेक्नोलॉजी ने सिखाया तो बहुत कुछ पर बच्चों के इमोशन (भावना) को मार कर उन्हें मशीनी बना दिया। ग्रैंड पेरेंट्स या संयुक्त परिवार में बच्चों को जो नैतिकता सिखाई जाती थी वह कहीं खो गई। और इसका सबसे बुरा प्रभाव ये पड़ा कि बच्चे असहिष्णुता ( इन्टॉलरेंस) के शिकार हो गए।
वे परिस्थितियों से जूझ नहीं सकते, न ही उनका सामना कर सकते। क्योंकि जिस परिवेश में उनका पालन-पोषण होता है या जिन स्थिति में उन्हें रहने की आदत हो जाती है ,उससे बाहर निकलकर संघर्ष करने की क्षमता उनमें विकसित ही नहीं होती है।
बच्चे आशा करते हैं कि जैसे बटन दबाते ही कम्प्यूटर, मोबाइल और टी वी ऑन हो जाता है , उसी तरह मुँह से निकली हर बात झट से पूरी हो जाय। परिवार हो या स्कूल, दोस्त हो या रिश्तेदार , दफ्तर हो या पार्क यानी हर जगह उन्हें आरामदायक , मनोनुकूल वातावरण मिले। उन्हें “ना “सुनने की आदत नहीं होती है। ऐसे में जब उन्हें रिजेक्शन मिलता है तो वे खुद को संभाल नहीं पाते हैं।परिणाम होता है आत्महत्या।
इसमें गलती सिर्फ बच्चों की नहीं होती है उन्हें जैसा परिवेश मिला , वैसे वे ढल गए। तो फिर सवाल उठता है कि दोष किसका है !!!
समाज… परिवार… या फिर बदलते दौर का ? जाहिर है कि समय के परिवर्तन के साथ समाज और परिवार को बदलना ही होगा नहीं तो विकास की गति अवरुद्ध हो जाएगी। निरन्तर उत्तरोत्तर विकास के लिए परिवर्तन आवश्यक है अतः सभी को साथ लेकर चलना ही अपेक्षित है। तब उपाय क्या है इस आत्महत्या की प्रवृत्ति को रोकने का ?
जैसे हम कहते हैं विज्ञान वरदान और अभिशाप दोनो है तो ये हमारे ऊपर निर्भर है कि हम इसका उपयोग कैसे करते हैं ! उसी तरह बदलाव को अपनाते हुए हमें परिवार की संरचना ऐसी करनी होगी जिसमें बच्चे संस्कार सीखें ,नैतिकता का पालन करें , सम्वेदनाओं को कन्ट्रोल करें, मानवीय अनुभूति जगाएं । दूसरे बच्चों के साथ शेयर और केयर के तर्ज पर दोस्ती निभाएं। पेरेंट्स से भी अपेक्षा होनी चाहिए कि वे बच्चों के साथ प्रतिदिन समय बिताएं।उनके मन की बात जानें और उन्हें अपने मन की बात बताने के लिए प्रोत्साहित करें।उनकी हर नाज़ायज़ माँग को स्वीकार न करें ।साथ ही उन्हें जीवन की कठिनाइयों से अवगत कराएं ।कभी- कभी बच्चों को गिरने दें और गिर कर सम्भलना सिखाएँ , उनका मार्गदर्शन करें। बच्चों को सहिष्णु बनाएं ,उन्हें प्रेम-करुणा के साथ त्याग का भी महत्व बताएं।उनके अंदर सद्गुणों का विकास करें ।अंधी ममता में पड़कर बच्चों की गलती को कभी भी अनदेखा न करें ।उन्हें पुरस्कार और दण्ड दोनों का महत्व समझाएं । तभी वे जीवन के दोनों पक्ष -अच्छे और बुरे ‘ से अवगत हो पाएंगे। माता-पिता को यह भी चाहिए कि वे अपने बच्चों की हर एक्टिविटी पर नज़र रखें और उनकी परेशानी को समझने की कोशिश करें बिना उनपर कोई दबाव डाले और सबसे बड़ी बात ये कि बच्चों को यह विश्वास दिलाएं कि वे हर हाल में उनके साथ हैं। बच्चों का विश्वास जीतना पेरेंट्स की सबसे बड़ी जीत होती है । इस तरह बच्चे मुश्किल घड़ी में अपनी परेशानी पेरेंट्स से साझा करेंगे । तब आत्महत्या जैसी घटनायें नहीं होगी।
पूनम ✍️…
हजारीबाग , झारखंड