आज वर्ल्ड पोस्ट ऑफिस डे के दिवस पर इस विचारणीय स्थिति में पहुँचे हैं कि ई मेल और व्हाट्सएप के जमाने मे पोस्टकार्ड एवम अंतर्देशीय की क्या प्रासंगिकता रह गई है ! एक समय था जब डाकघर की महत्ता बहुत ज्यादा थी। लोग डाकिये की प्रतीक्षा करते थे। महल्ले में डाकिया दिख नहीं कि लोगों की बाँछे खिल जाती थी। अपने मेहमान का आने से भी उतनी खुशी नहीं मिलती थी जितनी डाकिये के आने से। तब डाकघर ही एक ऐसा ज़रिया था जो दूर रहने वाले का संदेश पहुंचाता था। तब टेलिफोन भी बहुत कम लोगों के पास हुआ करता था और टेलीफोन बूथ भी शहर में एक्का-दुक्का ही होता था तो सारी आशाएँ डाकघर से ही होती थी। कितनी रौनक होती थी डाकघर में और कितनी पूछ भी। लेकिन समय बदल :सारी परिस्थिति ही बदल गई। अब के बच्चे तो पोस्टकार्ड और अंतर्देशीय के विषय में जानते तक नहीं कि उनकी शक्लें कैसी होती हैं।एक समय था जब पोस्टकार्ड की कीमत पाँच पैसे और अंतर्देशीय की पच्चीस पैसे हुआ करती थी। बड़ी साध के साथ लोग इसे खरीदते और शौक से चिट्ठियां लिखा करते थे।पास आई चिठ्ठियों को भी कई-कई बार पढ़ते थे।अब ज़माना बदल गया है ।अब ई मेल और व्हाट्सएप के ज़रिए सन्देश भेजते हैं जो कुछ समय बाद डिलीट कर दिए जाते हैं। आज काफी सालों बाद पोस्टकार्ड को देखकर पुरानी यादें ताज़ा हो गई।लगा कि ये तकनीकी यंत्रों के नीचे दबकर कहीं रह गया है।