बालिका शिक्षा को सामाजिक बदलाव का सूत्रधार मानती थीं Savitribai Phule ( माता सावित्रीबाई फुले )

Savitribai Phule ( माता सावित्रीबाई फुले )
देश के प्रथम शिक्षिका के रूप में पहचान रखने वाली समाजसेवी और मराठी कवयित्री माता सावित्रीबाई फुले का मानना था कि देश को एक बार फिर से विश्व गुरु बनाने के लिए शिक्षा रूपी अमृत का पान करने की सख्त जरूरत प्रत्येक देशवासियों को है। खास करके उनको जो भारत के दूरस्थ गांवों में आज भी शिक्षा के ज्योतिपुंज से दूर अभाव और अंधकार की जिंदगी गुजर बसर कर रहे हैं। शिक्षा नैतिकता और मानवीय मूल्यों से रहित तुच्छ वस्तु के समान है।
ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले दंपति ने देश को सिखाया कि पति और पत्नी कैसे एक दूसरे के सहयोगी बनके देश के समक्ष आदर्श प्रस्तुत कर सकते हैं। उन्होंने उस मुहावरे को गलत साबित कर दिया कि प्रत्येक पुरुष के सफलता के पीछे एक महिला का हाथ होता है। उन्होंने बतलाया प्रत्येक इंसान की सफलता में स्त्री और पुरुष दोनों का एक समान योगदान है। इसे कतई नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। यह बात सावित्रीबाई फुले के सफलता के पीछे अगर किसी का सर्वाधिक हाथ था तो वह था ज्योतिबा फुले का था।जिन्होंने उन्हें शिक्षा देकर दूसरों को शिक्षा देने लायक बनाया। महज नौ वर्ष की उम्र में शादी के बंधन में बंधने के बाद भी अगर आज सावित्रीबाई फुले देश के प्रथम शिक्षिका होने का गर्व हासिल की हैं तो उनके पीछे ज्योतिबा फुले का अहम योगदान रहा है। साथ ही सावित्रीबाई के सफलता में फातिमा शेख और उनके भाई उस्मान का भी बहुत बड़ा योगदान रहा जिन्होंने सावित्रीबाई को विद्यालय स्थापना करने और उसके संचालन में अहम योगदान दिया था।
आज से सैकड़ों वर्ष पहले महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में सावित्रीबाई फुले ने जो काम किया है आज उसी का परिणाम है सेवा के प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं की लगातार हिस्सेदारी बढ़ रही है।विकट परिस्थितियों में अपने लक्ष्यों को प्राप्त करना सबित्री बाई फुले के संघर्षपूर्ण जीवन से सीखने की जरूरत है। उनके द्वारा महिला शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए अट्ठारह सौ बावन में जो प्रथम विद्यालय स्थापित किया गया वही आज मील का पत्थर साबित हो रहा है।आज देश की बहू बेटियां प्रत्येक क्षेत्र में नित्य नई नई उपलब्धियां हासिल कर रही है।आज कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां महिलाओं ने अपना परचम नहीं लहराया हो।
  जब महात्मा ज्योतिबा फुले को उनके रूढ़िवादी पिता ने घर से निकाल दिया था, तब उस्मान शेख ने महात्मा फुले को रहने के लिए घर दिया और उनके शिक्षा कार्य को बढ़ाने के लिए अपनी बहन फातिमा शेख को सावत्री बाई फुले की सहायता के लिए शिक्षिका बनाया। सावित्री बाई फुले भारत की पहली शिक्षिका थीं। 1848 से लेकर 1852 के बीच केवल चार साल की अवधि में उन्होंने 18 स्कूल खोले थे। जिसमें से तीन बालिकाओं के लिए था।

सावित्रीबाई फुले (Savitribai Phule) का जन्म

महात्मा ज्योतिबा फुले और सावत्रीबाई फुले दुनिया के इतिहास में अदभुत पति पत्नी हुए हैं, जो दोनों ही महान समाज सुधारक रहे हैं। 28 नवम्बर 1890 को महात्मा ज्योतिबा फुले की मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों के साथ सावित्रीबाई फुले ने भी सत्य शोधक समाज को दूर-दूर तक पहुँचाने, अपने पति महात्मा ज्योतिबा फुले के अधूरे कार्यों को पूरा करने व समाज सेवा का कार्य जारी रखा।
सावित्रीबाई फुले का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिले के नयागांव में  3 जनवरी 1831 को था। इनके पिता का खन्दोजी नैवेसे और माता लक्ष्मी थीं। सावित्रीबाई फुले शिक्षक होने के साथ भारत के नारी मुक्ति आंदोलन की अगुवा के साथ साथ समाज सुधारक और मराठी कवयित्री भी थी। बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने के कारण इन्हें सामंती प्रवृत्ति के लोगों का कोपभाजन होना पड़ा। कई बार तो ऐसा भी हुआ जब बालिकाओं के हक में आवाज उठाने के चलते समाज के ठेकेदारों से पत्थर भी खाना पड़ा।
आजादी के पहले तक भारत में गरीबों और महिलाओं की गिनती दोयम दर्जे में होती थी। आज की तरह उन्‍हें शिक्षा का अधिकार नहीं था।18वीं सदी में तो गरीब और स्त्री का स्कूल जाना समाजिक अपराध घोषित था। विपरीत परिस्थितियों में सावित्रीबाई फुले ने जो कर दिखाया वह कोई साधारण उपलब्धि नहीं है। वह जब स्कूल पढ़ने जाती थीं तो लोग उन पर पत्थर फेंकते थे। इस सब के बावजूद वह अपने लक्ष्य से कभी भटकी नहीं और अपने कर्तव्य पथ पर लगातार आगे बढ़ते हुए लड़कियों व महिलाओं को शिक्षा का हक दिलाया।
      सावित्रीबाई फुले को आधुनिक मराठी काव्य का अग्रदूत माना जाता है। भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई ने अपने पति समाजसेवी महात्मा ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर 1848 में उन्होंने बालिकाओं के लिए एक विद्यालय की स्थापना की थी।

सावित्रीबाई फुले (Savitribai Phule) का  विवाह

वर्ष 1840 में उनका विवाह मात्र 9 वर्ष की सावित्रीबाई फुले से हुआ। वे पढ़ना चाहती थीं। परंतु उन दिनों लड़कियों को पढ़ाने का चलन नहीं था। शिक्षा के प्रति पत्नी की ललक देख ज्योतिबा फुले ने उन्हें पढ़ाना शुरू कर दिया। लोगों ने उनका विरोध किया। परंतु फुले अड़े रहे। उन्हें आगे पढ़ने लिखने के लिए प्रोत्साहित किया जिसके फलस्वरूप सावित्रीबाई ने अहमदनगर और पुणे से शिक्षण प्रशिक्षण प्राप्त कर एक योग्य शिक्षिका बनीं।

सावित्रीबाई फुले ने 3 जनवरी 1848 में पुणे में अपने पति के साथ मिलकर नौ छात्राओं के साथ पहली बालिका विद्यालय की स्थापना की। एक वर्ष में सावित्रीबाई और महात्मा फुले पांच नये विद्यालय खोलने में सफल हुए। जिसके लिए तत्कालीन सरकार द्वारा इन्हे सम्मानित किया गया।
        भारत में आजादी से पहले समाज के अंदर छुआ-छूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह और विधवा-विवाह जैसी कुरीतियां व्याप्त थी। सावित्रीबाई फुले का जीवन बेहद ही मुश्किलों भरा रहा। महिलाओं के उत्थान के लिए काम करने, छुआछूत के खिलाफ आवाज उठाने के कारण उन्हें एक बड़े वर्ग द्वारा विरोध भी झेलना पड़ा। ऐसा कहा जाता है कि जब वह स्कूल जाती थीं, तो उनके विरोधी उन्हें पत्थर मारते और उनपर कचड़ा फेंक देते थे। जिसके कारण सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुंच कर गंदी हुई साड़ी बदल लेती थीं। आज से एक सदी पहले जब गरीबों और महिलाओं का शिक्षा ग्रहण करना सामाजिक अपराध माना जाता था उस दौरान उन्होंने महाराष्ट्र की सांस्कृतिक राजधानी पुणे में पहला बालिका विद्यालय खोल पूरे देश में एक नई पहल की शुरुआत की।
उस वक्त समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों से सावित्रीबाई फुले का हृदय हमेशा दुखित रहता था वह देश में विधवा स्त्रियों की व्याप्त दुर्दशा से काफी दुखी रहती थीं। विधवाओं के कल्याण के लिए 1854 में उन्होंने विधवा आश्रय खोला। वर्षों के निरंतर सुधार के बाद 1864 में इसे एक बड़े आश्रय में बदलने में सफल रहीं। उनके इस आश्रय गृह में निराश्रित महिलाओं, विधवाओं और उन बाल बहुओं को जगह मिलने लगी जिनको उनके परिवार वालों ने छोड़ दिया था। सावित्रीबाई उन सभी को पढ़ाती लिखाती थीं। उन्होंने इस संस्था में आश्रित एक विधवा के बेटे यशवंतराव को भी गोद लिया था। उस समय आम गांवों में कुंए पर पानी लेने के लिए अतिशूद्र या नीच जाति के लोगों का जाना वर्जित था। यह बात उन्हें और उनके पति को बहुत परेशान करती थी। इसलिए उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर एक कुआं खोदा ताकि वह लोग भी आसानी से पानी ले सकें। उनके इस कदम का उस समय खूब विरोध भी हुआ।
सावित्रीबाई के पति ज्योतिराव का निधन 1890 में हो गया। उस समय उन्‍होंने सभी सामाजिक मानदंडों को पीछे छोड़ते हुए उन्होंने अपने पति का अंतिम संस्कार किया और उनकी चिता को अग्नि दी। इसके करीब सात साल बाद जब 1897 में पूरे महाराष्ट्र में प्लेग की बीमारी फैला तो वे प्रभावित क्षेत्रों में लोगों की मदद करने निकल पड़ी, इस दौरान प्लेग की बीमारी से पीड़ित एक अछूत जाति के बच्चे को पीठ पर लादकर लाने की वजह से वे खुद भी प्लेग की शिकार हो गई और 10 मार्च 1897 इस जहां को अलविदा कह गईं।
    ज्योतिबा फुले देश के लिए कहते थे किसी भी राष्ट्र को आगे ले जाने के लिए कृषि और किसान ही आधार हैं और इसके लिए उन्होंने एक किसान विद्यालय की भी स्थापना की थी। आज जरूरत है वंचित समुदाय से ताल्लुक रखने वाले तमाम महान विभूतियों पर विश्वविद्यालयों में शोध कार्य किया जाए ताकि उनके अमूल्य योगदान को देश की प्रगति के लिए उपयोग किया जा सके।
गोपेंद्र कु सिन्हा गौतम
सामाजिक और राजनीतिक चिंतक
औरंगाबाद बिहार
TFOI Web Team