अभी कुछ ही दिन पहले जम्मू कश्मीर की रैली में भाषण देते- देते कांग्रेस अध्यक्ष श्री खड़गे जी की तबीयत अचानक बिगड़ गई और वह थोड़े डांवाडोल हो गए । जहां सभी कार्यकर्ता उनके स्वास्थ्य की चिंता करते हुए उनकी देखभाल में संलग्न हो गए ,वहीं खड़गे जी इस अवस्था में भी चुनावी रण क्षेत्र में डटे रहे और अपना लक्ष्य नहीं भूले । थोड़ी क्षीण किंतु, जोशीली आवाज में अपने कार्यकर्ता और दर्शकों को आश्वस्त करते हुए बोले- चिंता मत करो, मैं अभी 82 वें में चल रहा हूं और तब तक नहीं मारूंगा जब तक मोदी जी को कुर्सी से हटा नहीं दूंगा। वाह ! क्या जोश है? क्या जज्बात है ? रण क्षेत्र में ऐसी ही दृढ़ता एवं जोश की तो दरकार होती है। यही जिजीविषा तो जीवन, लक्ष्य और विजय प्राप्ति का मूल मंत्र है। लक्ष्य प्राप्ति हेतु मृत्यु को धत्ता बताने वाली ऐसी विकट लालसा ही वीरता का प्रमाण है । संघर्ष की उत्कट इच्छा ही जीत का निर्माण करती है। रण में अडिग होकर डटे रहना ही शूरवीर का धर्म है। ‘ सूरा सो पहचानिए जो लड़े दीन के हेत ‘ और राजनीति में दीन का मूर्त रूप ‘कुर्सी’ है। दीन-धर्म ,आशा- विश्वास सब कुर्सी में ही साकार होता है। राजनीति में ‘कुर्सी’ के अतिरिक्त कोई दीन नहीं होता फिर चाहे नैतिकता के कितनी भी मर्यादा क्यों न लांघ जाए, चिंता नहीं करनी चाहिए। बस अपने स्वार्थ के लिए डटे रहना है। यूं भी प्रतिपक्ष पर कटाक्ष आवश्यक है। मर्यादा, नैतिकता यह सब तो व्यर्थ के प्रवचन है, इन पर चुनाव के बाद विमर्श हो जाएगा अभी समय की बर्बादी अच्छी नहीं। एक-एक पल कीमती है, समय का सदुपयोग करना चाहिए । ‘पीएम’ पद की गरिमा का ख्याल बाद में कर लेंगे, कौन सी उमर बीती जा रही है। बस विपक्ष की गरिमा का अक्षुण्ण रहना आवश्यक है, जिम्मेदारियां तो वैसे भी सत्ता पक्ष की होती है। विपक्ष का तो कार्य ही है दोषों को ढूंढना। तभी तो शासन संवरेगा, संभालेगा। देश को निरंकुश शासन से बचाना है कि नहीं! किंतु, कुछ लोग यह समझते ही नहीं है और हाय तौबा मचाने लगते हैं। अब यदि सोचने से ही सब हो जाए तो इतनी कवायद की आवश्यकता क्या है ? वैसे भी यहां सब की खाल मोटी है।
इधर सत्ता पक्ष भी अच्छी तरह जानता है कि ‘कागा कोसे बामन ना मरा करें’ सो वह भी निश्चिंत है। मुझे बचपन का समय याद आ रहा है जब गांव में श्राद्धों के दिनों में कौवों का महत्व बढ़ जाता था और कौवों की टोली आंगन में बैठे पंडित जी की थाली के ऊपर मंडरा रही होती थी। मौका पाकर पूड़ी उठाने की जुगत में सारे कौवे कांव-कांव करते रहते और पंडित जी परेशान होते रहते तो, दादी बोलती थी ,पंडित जी दुखी मत होइए ‘कागा कोसे बामन ना मारा करते’ अर्थात कौवों के कोसने से ब्राह्मण नहीं मरते आप शांत हो भोजन करें। खैर छोड़िए! हमें क्या ? ये दोनों खुश रहते हैं अपनी-अपनी उम्मीदों में, एक जीत की संभावना में, दूसरा जीत की स्थिरता में । एक को जीतने की जिद, कुर्सी की चाहत दूसरे को ‘कुर्सी’ की निश्चिंतता ,अपने कार्य का आलंब, और प्रशासन संचालन की कुशलता पर विश्वास। तुम्हारी भी जय जय!, हमारी भी जय जय ! फिलहाल विपक्ष की बात को अमर्यादित, अनैतिक, धृष्टता बताकर कुछ चुनावी रोटियां सेंक लेने में हर्ज क्या है? बैठे बिठाये ऐसे मौके ईश्वर कम ही देते हैं। झोली में गिरे मुद्दे को नहीं भुनाया तो फिर क्या किया? नकारा बैठना अच्छा नहीं , सर्वत्र कर्मठता की दरकार होती है। आवश्यकतानुसार जुबानी जमा खर्च ही तो ‘जनता’ और ‘कुर्सी’ दोनों को साधने का मूलमंत्र है। अतः सभी को शुभकामनाएं।
-सीमा तोमर