ओशो का 70 वां सम्बोधि महोत्सव

खोलो गृह के द्वार, मुंदे वातायन, खोलो : स्वामी चैतन्य कीर्ति

तरुण शर्मा

हरियाणा, आगामी 21 मार्च को ओशो का 70 वां सम्बोधि महोत्सव है. इसे भारत तथा विश्व भर में अनेक ओशो ध्यान केंद्रों में मनाया जायेगा, लेकिन इस बार एक और अनूठी घटना भी होने जा रही है: देश भर से हज़ारों ओशो प्रेमी पुणे जाएंगे और वे इस महोत्सव को वहां भी मनाएंगे। यद्यपि यह सुनिश्चित रूप से तो नहीं कहा जा सकता कि ओशो के आश्रम में भी इसका आयोजन होगा कि नहीं, तथापि इतना कहा जा सकता है कि ओशो के प्रेम दीवाने इसे कोरेगांव पार्क की गलियों, आश्रम के सन्निकट तो अवश्य मनाएंगे। और यह एक अपूर्व दृश्य होगा जब आश्रम के भीतर केवल 100-50 लोग होंगे और बाहर हज़ारों की संख्या में लोग नृत्य गीत के साथ उत्सव मना रहे होंगे. यह इसलिए क्योंकि आश्रम प्रबंधन किसी बंधन में है, उसे ज़ूरिख स्विट्ज़रलैंड वाले व्यापारी जन उत्सव मनाने की अनुमति नहीं देते और स्थानीय प्रबंधक विद्रोह करने की क्षमता नहीं रखते। इस प्रकार 100-50 लोग भीतर गुमसुम बने रहेंगे और बाहर नृत्य-कीर्तन की बहार होगी।

हज़ारों की संख्या में पुणे आने वाले ओशो प्रेमी ओशो की समाधि पर मैं बैठेंगे तथा समाधि दर्शन के लिए जाएंगे, लेकिन समाधि को केवल एक बार सुबह और दूसरी बार दोपहर दो बजे खोलना प्रयाप्त नहीं होगा –इसलिए उचित होगा कि 21 मार्च को समाधि पूरा दिन खुली रहे. अगर आश्रम प्रबंधकों को कुछ वर्क मैडिटेशन करने वाले लोगों की ज़रुरत है तो वे बहुत लोग ख़ुशी ख़ुशी उपलब्ध रहेंगे, लेकिन समाधि किसी भी समय ओशो प्रेमियों के लिए बंद हो यह उचित नहीं होगा।

पूर्वकाल में भी ऐसा होता था कि समाधि के अतिरिक्त ओशो का शयन कक्ष भी दर्शन के लिए पूरे दिन के लिए खोल दिया जाता था. लेकिन अबकी बार ओशो का 70वां सम्बोधि महोत्सव है, इसे पूरा दिन दर्शन के लिए खोल कर रखना आवश्यक है। सद्गुरु की ऊर्जा से आपूरित ऐसे स्थान बंद रखने के लिए नहीं होते–वे स्थान शिष्यों के लिए ही होते हैं, निरंतर खुले होने चाहिए।

आओ हम ओशो के द्वारा सुनाई एक कविता का स्मरण करें:

खोलो गृह के द्वार, मुंदे वातायान खोलो,
मैं जीवन का सूर्य तुम्हारे घर आता हूं।

धूप रोकनेवाले सब आवरण हटा दो।
लिये आ रहा फूलों का स्वर्णिम विकास मैं,
लिये आ रहा हूं सुगंध उन्मुक्त बिपिन की;
लिये आ रहा स्वर्णातप अपनी मयूख का,
लिये आ रहा हूं शीतलता मैं हिमकण की।

उठो, उठो, उपधानों पर से शीश उठाओ,
पलक खोल कर देखो, कैसी लाल विभा है।
मैं जीवन का सूर्य तुम्हारे द्वार खड़ा हूं,
धूप रोकनेवाले सब आवरण हटा दो।

दारु-सद्म-से निज उर के वातायन खोलो,
वातायन जो बहुत दिनों से बंद पड़े हैं।
और मुझे छितराने दो अपने मंदिर में
आभा, आतप, ओस, पुष्प औ’ गंध बिपिन की।

खोलो गृह के द्वार, मुंदे वातायन, खोलो,
मैं जीवन का सूर्य तुम्हारे घर आता हूं।
धूप रोकनेवाले सब आवरण हटा दो।

“सदगुरु की उपस्थिति तो सूर्य की उपस्थिति है। मगर तुम आंख बंद किये रहो तो सूर्य व्यर्थ हो जाता है। या तुम अपने द्वार-दरवाजे बंद रखो, परदे डाले बैठे रहो, तो सूर्य व्यर्थ हो जाता है। सूर्य को व्यर्थ करना, सार्थक करना तुम्हारे हाथ में है।

“झुको, खुलो, आवरण हटाओ, तो सूर्य सार्थक हो जाये। और मजा यह है कि अगर तुम आवरण हटाओ तो सूर्य कुछ और नहीं करता, सूर्य की मौजूदगी कैटेलिटिक एजेंट हो जाती है। सूर्य की मौजूदगी तुम्हारे भीतर सोये हुए महासूर्य को जन्म दे देती है। गुरु से शिष्य तक कुछ जाता नहीं बस गुरु की मौजूदगी में शिष्य के भीतर कुछ घटता है। गुरु को देखकर तुम्हें याद आ जाती है अपने भीतर छिपे गुरु की। गुरु के बोध को देखकर तुम्हारा बोध तिलमिला उठता है। गुरु की अग्नि को देखकर तुम्हें स्मरण आता है कि मैं राख में क्यों खो गया हूं; मेरे भीतर भी अंगारा है। गुरु तुम्हें आत्म-स्मरण के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं देता है।”
खोलो आश्रम के सब द्वार–ओशो प्रेमियों को भीतर आने दो। यह कोई भीड़ नहीं है–ये ओशो के अपने लोग है, ओशो के प्रेमी है, ओशो के संयासी है ,ओशो का परिवार है।

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Tags: ओशो