रूद्रपुर देवरिया/
जिंदगी की भागदौड़ और व्यस्तताओं के बीच सावन की मस्ती कहीं गुम हो गई है। शहर तो दूर अब गांवों में भी मल्हार सुनाई नहीं देते। पेड़ों पर पड़े झूले और उन पर पींग बढ़ाती युवतियों-महिलाओं वाले दृश्य अब विरासत बनते जा रहे हैं।
पवित्र एवं पावन मास के रूप में मनाए जाने वाले सावन माह की परंपराएं आधुनिकता के दौर में गुम होती जा रही हैं। अभी एक दशक पूर्व की ही बातें करें तो सावन माह आते ही पेड़ों में झूले पड़ जाते थे। महिलाओं की टोली झूला झूलते हुए कजरी गीत गाती थीं लेकिन इधर आधुनिकीकरण जैसे मोबाइल, टीवी, इंटरनेट ने पुरानी परंपराओ को ग्रहण लगा दिया है। अब लोकगीत जैसे झूला तो पड़ गयो अमुआ की डाल में..भी सुनाई नहीं देता है।लोग बताते हैं कि भारतवर्ष परंपराओं का देश है। जहां अधिकतर लोग परंपराओं पर ज्यादा विश्वास रखते हैं। यहां सबसे पावन एवं पवित्र माह सावन माना गया है। जिसमें नाग पंचमी, रक्षाबंधन आदि त्योहार भी पड़ते हैं। पूरे सावन माह भोले की भक्ति की जाती है। आज के एक दशक पहले सावन माह लगते ही बहन बेटियों का आवागमन शुरू हो जाता था। गांव के सभी बाग बगीचों में बच्चों और महिलाएं झूला डाल लेती थीं। हर तरफ सावन के कजरी गीत सुनाई देते थे। जिससे प्रतीत होता था कि कोई पर्व मनाया जा रहा है। अब आधुनिकता की अंधी दौड़ में लोगों के पास समय ही नहीं बचा है। छोटे-छोटे बच्चे दिन भर मोबाइल एवं टीवी में गेम फिल्म एवं गीत संगीत में डटे रहते हैं। जिसके दुष्प्रभाव भी सामने आते रहते हैं, बच्चों के मानसिक विकास कमजोर हो रहा है।पहले बागो में झूले पड़ जाते थे। जहां आधी रात तक महिलाएं कजरी गीत गाकर झूला झूलती थीं लेकिन अब बागों में पूरा सावन सन्नाटा रहता है।
शरीर में उत्साह और उमंग भर देने वाला सावन का मौसम बदलते हुए समय के साथ अपनी पहचान खो चुका है।
अब न तो गांव-देहात में पहले की तरह घर-आंगन में झूले पड़ते हैं और न महिलाएं मंगल गीत गाती है। विकास के नाम पर पेड़ तो पहले ही गायब हो चुके हैं, बाकि रही-सही कसर बहुमंजिला इमारतों के बनने से पूरी हो गयी है।
सावन में खेले जाने वाले खेल अब यादों का हिस्सा बनकर रह गए हैं।
हां जन्माष्टमी पर भगवान को झूला झुलाने की परम्परा अभी भी निभाई जाती है, लेकिन लोगों के जीवन से सावन का आनंद अब गायब हो गया है।कीटनाशकों ने खत्म किया सावन का मजा
बाग-बगीचों से मोर, पपीहा और कोयल की मधुर बोलियां ही सावन के आने का संकेत दे देती थी. लेकिन अब बढ़ते हुए कीटनाशकों के प्रभाव के कारण पंक्षियों का विचचरण लगभग समाप्त ही हो गया है. वैसे भी गांवों में अब बगीचे नाम मात्र ही रह गए हैं।पहले परिवार के लोग साथ रहते थे, इसलिए हर दुख-सुख में साथ रहते थे. अब तो एकल परिवार में लोगों को साथ रहने का समय नहीं रहा है. ऐसे में सांस्कृतिक पर्वों, आयोजनों एवं परंपराएं समाप्ति की कगार पर है।