अभी हाल ही में दिल्ली के सीएम श्री अरविंद केजरीवाल जी ने अपना त्यागपत्र दिया। सुप्रीम कोर्ट की अनेकों बंदिशों के कारण वह अधिकांश मामलों में दस्तखत नहीं कर सकते थे। अतः उन्होंने अपने स्थान पर सीएम के पद के लिए आतिशी जी को नियुक्त किया और सर्वाधिक मंत्रालय वाली ‘आप की’ मंत्री आतिशी जी ने दिल्ली के मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली। कार्यभार संभालने के तुरंत बाद ही उन्होंने घोषणा की, कि जिस प्रकार भरत ने 14 साल तक रामजी की खड़ाऊं रखकर उनका प्रतिनिधि बनकर अयोध्या पर राज किया वह भी वैसा ही करेंगी। आगामी चुनावों में केजरीवाल जी पुनः निर्वाचित होकर इसी कुर्सी पर विराजेंगे। तब तक कुर्सी अपने मुख्यमंत्री की प्रतीक्षा करेगी। उन्होंने अपना कार्यभार तो संभाल लिया किंतु पूर्व मुख्यमंत्री केजरीवाल जी की कुर्सी को श्रद्धापूर्वक रिक्त रखा और उसकी बगल में दूसरी कुर्सी पर बैठना स्वीकार किया। अब लोकतंत्र में कुर्सी की ऐसी वैकल्पिक संवैधानिक व्यवस्था उपलब्ध भी है या नहीं इस पर विचार करने का कष्ट भी भला क्यों उठाना ? असली मामला तो निष्ठा का है।

श्री खड़गे उवाच!

पद एवं जनता के प्रति निष्ठावान होना उतना जरूरी नहीं ,पार्टी और नेता के प्रति निष्ठा की घोर आवश्यक होती है। यही तो राजनीतिक जीवन की खुराक है और संभवतः कुर्सी का सुरक्षा कवच भी। जनता का क्या, उसे तो और किसी बहाने से समझा लेंगे! वैसे भी चुनावों तक तो रिलैक्स है ही ना! तब तक तो कुर्सी कहीं जाती नहीं ! आतिशी जी का यह कृत्य केजरीवाल जी के प्रति तो प्रगाढ़ निष्ठा का बोधक है किंतु, क्या निष्पक्ष कर्तव्य निर्वहन एवं उत्तरदायित्व की भावना को भी प्रतिपादित कर पाएगा ? इसका दूसरा अर्थ एक कठपुतली मुख्यमंत्री की स्थापना भी तो हो सकता है और यदि ऐसा है तो क्या वह जनता के प्रति और अपने पद के प्रति उदासीनता नहीं है? ऐसी संभावना भी हो सकती है कि ,आतिशी जी के राजकीय निर्णय राज्य की अपेक्षा एवं आवश्यकता अनुसार नहीं अपितु घोषित निष्ठा के प्रति उत्तरदायी हों । तो फिर जनता का भला कैसे होगा ?

खैर जनता का भला ना भी हो तो क्या? पार्टी का भला तो होना ही चाहिए ,वैसे भी जनता की भावनाओं से खेलने का यह कार्यक्रम ‘आप’ ने बहुत प्रभावशाली बनाया है। घोटाले के आरोपों पर खाली कुर्सी का दांव काफी अच्छा भी सिद्ध हो सकता है। विपक्ष पर भारी भी पड़ सकता है। अब भाई ! भारी पड़े या ना पड़े, कोशिश करने में हर्ज ही क्या है? यूं भी कोशिश करने वालों की हार नहीं होती। सो कोशिश तो होती ही रहनी चाहिए, फिर चाहे फल मिले ना मिले। वैसे उम्मीद पर दुनिया कायम है, खाली कुर्सी भारी भी तो हो सकती है। खैर, अब दिल्ली की जनता की कोशिशें का भार तो कुछ समय बाद ही मालूम चलेगा। तब तक आतिशी जी की खड़ाऊं चलेगी। लोकतंत्र में राजतंत्र वाली ‘आतिशी खड़ाऊ’ को दंडवत प्रणाम! राम राम जी !

-सीमा तोमर

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