तालिबान-अफगानिस्तान प्रसंग और हिंदुस्तान

Updated: 18/09/2021 at 7:53 PM
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तालिबान – अफगानिस्तान प्रसंग और हिंदुस्तान अफगानिस्तान में वर्तमान राजनीतिक संकंट और तालिबान के कब्जा को सरलतम रुप से देखने के लिए हमें इस क्षेत्र के ऐतिहासिक स्वरुप और समकालीन राजनीतिक रणनीति को देखें जाने की आवश्यकता है।

             वर्तमान अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच , और समकालीन राजनीतिक व्यवस्था के तहत अफगानिस्तान और भारत के बीच ब्रीटिशर्स द्वारा खिंचे गये डूरंड रेखा ने भी तालिबानियों को खाद और उर्वरक मुहैया कराकर वर्तमान भयानक अक्रांता वाला चेहरा विकसित करने में मदद किया है। डूरंड रेखा और इसके परिप्रेक्ष्य में विस्तार से रखे गये सभी बातों को राजीव डोगरा के पुस्तक — ‘एक्रास द पठान हार्ट’  के अनुसार और अफगान कमिश्नर और  ब्रिटिश के द्वारा यह रेखा आमीर से  समझौतों के तहत मौके पर ही नक्शे पर यह लाईन खींच दी गई थी — जो किसी भी दृष्टिकोण से व्यवहारिक नहीं था ।

वस्तुत: यह रेखा पश्तुन सम्प्रदाय के घर आंगन खेत खलिहान और विविध परिवारों के बीच एक विभाजक रेखा जैसा साबित हो रहा था। फलत: इससे संबंधित जनाक्रोश वर्तमान पाक भूखंडों और अफगान भुखंडो पर निवास करने वाले जनों के बीच निरंतर गहराता गया और  स्थानीय असंतोष जो सुन्नी समुदाय के पोषक थे उसने सरिया कानुनों के तहत इस क्षेत्र पर सभी बंदिशों को खत्म कर अपना हुकूमत चलाने की योजना बनाई। पाकिस्तान ने अन अपेक्षित आतंक समुह के प्रवेश निषेध को लेकर  इस क्षेत्र का फेसिंग भी कराया लेकिन यह कारगार न हो पाया।फलत: दोनों ही देशों ने उक्त डूरंड रेखा के प्रति असंतोष जाहिर करते हुए इसे अव्यवहारिक तो मान लिया लेकिन आपसी सहमति आधारित सीमा रेखा / बाडर लाईन आज तक नहीं विकसित कर पाया।

तालिबान-अफगानिस्तान

     पश्तून आंदोलन का एक अलग भी समीकरण है , जिससे पाकिस्तान और अफगानिस्तान दोनों ही सशंकित रहते हैं। पश्तुनो का राष्ट्रवादी हिरो फ्रंटियर गांधी का भारत से नजदीकी संबंध भी पाकिस्तान को शुरूआत से ही असहज करता आया है। विदेशी मामलों के विशेषज्ञ का मानना है कि तालिबानियों को पाकिस्तान द्वारा समर्थन के पिछे का मंसूबा पश्तुनो ‌को कुचलना भी था। जबकि पश्तूनों के आजादी को भारत द्वारा  तथाकथित समर्थन या संकेत मात्र से पाकिस्तान  बेचैन हो जाता है।

         पश्तो जुबान में छात्रों को तालिबान कहा जाता है।नब्बे के शुरुआती दशक में जब रुसी सैनिकों द्वारा अफगानिस्तान को छोड़कर वापस जाने की प्रक्रिया चल रही थी उस समय ये तालिबान अपने को सांगठनिक रूप से मजबूत कर रहे थे। विशेषज्ञों के अनुसार पश्तो आंदोलन पहले धार्मिक मदरसों में उभरा जिसका वित्तपोषण सउदी अरब ने किया ।

            यह तालिबानियों के शुरुआती दिनों की बात थी । कलांतर में यह पश्तून और तालिबान कमोबेश एक दुसरे के पर्याय सा बन गये और अपने समान हित को लेकर एक दुसरे का समर्थन भी करते हैं और विपरीत हित पर टकराते भी हैं।

            जब सोवियत संघ के सैनिक वापस जा रहे थे तो उस समय तालिबानियों के उभरने की सुगबूगाहट   और सांगठनिक रूप से मजबूत होना  स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा था और ठीक आज जब अमेरिकन सैनिक वापस जा रहें हैं तो तालिबानियों द्वारा सत्ता अवरोहन  के बीच का कालखंड भी वर्तमान राजनीतिक विश्लेषकों के अध्ययन का कालक्षेत्र अवश्य होना चाहिए।

अब दशकों तक लंबे समयकाल जैसा सैन्य सहित अन्य विविध सहायता प्रदान कराने वाला अमेरिका और रुस  को आज जरुर आत्मचिंतन करना चाहिए ,कि किन कारणों से उनकी नीति अफगानिस्तान में लोकतंत्र की स्थापना में असफल रहा । दरअसल सैन्य प्रहरी के साथ साथ  इनके औपनिवेशिक व्यपारिक हित भी इन कालखंडो में यहां परोक्ष रूप से गतिशील रहा।कतर की राजधानी दोहा में फरवरी 2020 में तालिबानी प्रतिनिधि और अमेरिकी प्रतिनिधि के बीच एक समझोता हुआ जिसमें अमेरिका द्वारा अपने सैनिकों के वापसी और तालिबानियों द्वारा किसी भी अमेरिकी ( सैनिकों सहित ) को कोई नुकसान न पहुंचाने पर सहमति बनी। ऐसे में अमेरिकी राष्ट्रपति का यह बयान‌ स्वभाविक ही है,  कि अन्याय और अत्याचार के खिलाफ लोकतंत्र की रक्षा के लिए अफगान जनता को संघर्ष करना होगा , अमेरिकी सैनिकों को इस हेतु व्यर्थ ही जान गंवाने क्यों भेजा जाय। दरअसल अमेरिका अफगानिस्तान में भारी भरकम सैन्य खर्च के लंबे समय से वहन करते करते‌ परेशान सा हो गया था और यह कदम अमेरिकी विदेश नीति का हि एक आयाम था जो पूर्व निर्धारित था और जिनकी झलक अमेरिकी चुनाव में देखा जा सकता है।

             लोकतंत्र के मजबूत बुनियाद के लिए जागरूक जनता और शैक्षणिक परिस्थिति मुख्य भूमिका में होता है। अल-कायदा और तालिबान को नस्तनाबूद करने की तथाकथित सोच रखने वाले अमेरिकी रणनीतिकारों ने यह बहुत बड़ी भूल‌ कर दी थी — कि तालीबान , अल-कायदा , जैसे आतंक के पर्याय , वहां की जनता द्वारा ही पोषित होता था , जिसे किसी ने गंभीरता से नहीं पहचाना और न समाधान के मौलिक उपाय खोजे। किसी भी वैश्विक संगठन ने अफगानिस्तान के हालात को लोकतंत्र के अनुरूप स्वत: पुष्पित पल्लवित होने के लिए आवश्यक मौलिक बातों पर ध्यान नहीं दिया , वहां के शैक्षणिक परिवेश और रोजगारोन्मुख पाठ्यक्रम को टटोलने और उसे आधुनिक स्वरूप में ढालने के लिए कोई यत्न नहीं किया ।

       फलस्वरूप सोवियत रूस और अमेरिकी सैनिक जो वहां के प्रहरी बन बैठे थे के घर-वापसी पश्चात पुरानी व्यवस्था का कायम हो जाना कोई अचरज वाली बात नहीं ।

    तालिबानियों द्वारा गठित सरकार का उद्देश्य है सरिया कानून लागू करना , बुर्का व‌ पर्दा प्रथा का सख्ती से लागू करना , औरतों को बगैर पुरुष सहयोगी के घर से निकलने पर मनाही आदि। अफगानिस्तान में वर्तमान गठित तालिबानी सरकार इक्कीसवीं सदी का  शायद सबसे बड़ा  भद्दा मजाक होगा जिसे विश्व एक अनोखे प्रकार का ग्रेट ट्रेजडी या ग्रेट कमेड़ी की संज्ञा देंगे यह तो भविष्य के राजनीतिक विज्ञान वाले  पुस्तक में एक काला अध्याय के रूप में होगा।

आम तौर पर एक सरकार गठन के समय स्वस्थ परंपरा चली आ रही है कि अनुभवी और ज्ञानी जनों को उनके काबिलियत के अनुकूल ही विभागों का बंटवारा होता है  , उन्हें महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिलती है समाज में अहम विषयों पर अच्छे सोच को लाने का ,और लागु करने का। लेकिन आज का अफगानिस्तान इससे बिल्कुल परे है। नाग सर्प को अगर आप नित्य अमृतपान कराते हैं तो इस बात की कोई गारंटी नहीं कि वह आपको या आपके हितैषी को नहीं डसेगा — आपके परिवेश में जो आयेगा  उसे वह डसेगा जरुर बशर्ते  आप लापरवाह वश कभी भी असावधानी बरते। आज यही तालिबान कर रहा है। कभी तालिबान का पोषक वैश्विक समुदाय के विभिन्न देशों को माना जाता था। आज सभी संशकित हैं। खुनखराबा , गोला बारुद ,अपहरण,  मानव बम इस्तेमाल , हत्या जैसे जघन्य कुकृत्य जिनके माथे जितनी बड़ी नरसंहार किया गया हो वह व्यक्ति आज अफगानिस्तान के तालिबानी सरकार में उतने ही बड़े ओहदे पर विराजमान हैं। अभी तक के घटनाक्रम यह संकेत देने के लिए काफी है कि वह दिन दुर नहीं जब वैश्वीक समुदाय का स्वत: मंचित व घोषित निर्विवाद मुखिया अमेरिका,  लंबे समय से अपने द्वारा घोषित मोस्ट वांटेड टेररिस्ट के साथ अमेरिकी विदेश मंत्री या राष्ट्र पति समकक्ष के हैसियत से साथ साथ चाय की चुस्की ले रहे हों — वार्ता कर रहे हों। इस समस्त घटनाक्रम में भारत के लिए चिंता बढ़ती जा रही है। वर्तमान तालिबान सरकार कहीं न कहीं से चीन और पाकिस्तान का अपरोक्ष गठबंधन‌  सरकार जैसा है , जिसे भारत को संभवतः अकेले अपने बल बूते पर लड़ना और राजनीतिक कौशलता से अपनी मजबूत स्थिति जगजाहिर करना होगा। और वैसी स्थिति में जब अमेरिका जैसा वैश्विक महाशक्ति और संयुक्त राष्ट्र संघ इस घटनाक्रम पर चुप्पी बनाये‌ हुए हों तो एक प्रकार से इस सरकार को अपनी मौन सहमति और स्वीकृति देने जैसा ही है — ऐसे स्थितियों में भारत के लिए हर एक कदम , इस संदर्भ में बोला गया हरेक वाक्य दुरगामी परिणाम वाला साबित हो सकता है ।  कहते हैं दुध का जला मठ्ठा भी फुक फुक कर पिता है — और भारत भी आज इसी रणनीति पर गंभीर है , अंतराष्ट्रीय बिरादरी के साथ भारत  है ही लेकिन कोई भी ऐसा कदम भारत नहीं उठाना चाहता जिसके दुष्परिणाम हमें झेलने पड़े।

    विश्व   मानवाधिकार  वालों ने‌  पैंतीस युरोपीयन देशों के प्रतिनिधियों के साथ जम्मू कश्मीर का उस समय दौरा किया था जब वहां से धारा 370 को समाप्त कर दिया गया था , अब शायद आज के समय में विश्व मानवाधिकार संगठन सहित अन्य वैश्विक संस्था गहरी निद्रा में हो और उसे अफगानिस्तान के हालात कि जरा भी भनक न हो लेकिन उसे विश्व बिरादरी के प्रमुख देशों द्वारा जगाना ही चाहिए  , और इस प्रकार के वैश्विक संगठनों को अपने अस्तित्व में होने का अर्थ जगजाहिर करना चाहिए वरना जिसकी लाठी उसकी भैंस क्रुरता से अपना अर्थ जगजाहिर करता रहेगा । धन्यवाद।

©पवन मिश्रा |  अध्यापक , दुमका, झारखंड

First Published on: 18/09/2021 at 7:53 PM
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