छत्तीसगढ़। हरेली पर्व को बस्तर में अमुस तिहार या डिटोंग तिहार के रूप में पुजते है। छत्तीसगढ़ में हरेली के दिन दीवारों में हरेली चित्रण कर,कृषि औजारों, गेड़ी,खेतों व गायों का पूजन पुरी पारंपरिक विधि विधान से किया जाता है। घरों में नीम व दशमुर की डाली हमारे गांव के ग्वालो द्वारा लगाया जाता है । मीठे चीले का भोग चढ़ाया जाता है,बांस की गेड़ी बना कर ,उसकी पूजा कर बच्चे व जवान गेड़ी पर चढते हैं, लोहार भाईयों द्वारा घर के द्वार में कील ठोके जाते है।गायों को नमक और आटे का लोई व वन औषधि सतावर खिलाया जाता है, नाव चलाने वाले अपने नाव के मांघी में सिंदूर का त्रिशूल बना कर जल देवता की आराधना करते है। ये हमारी सांस्कृतिक धरोहर है।
“गेड़ी” जिसे गोंड़ी भाषा मे डिटोंग कहाँ जाता है। गेड़ी का अर्थ है गेंडने की क्रिया अर्थात् जमीन पर बांस या लकड़ी की सहायता से दबाव बनाते चलना। प्राचीन समय गली व रास्तों में बरसात के दिनों में कीचड़ व बरसात के पानी से बचाओ के लिए गेड़ी चढ़ा जाता था।
गेड़ी व्यक्ति या बच्चो की ऊंचाई से अधिक ऊंचे बाँस की लकड़ी का बनाया जाता है। दो बांसो को बराबर काटा जाता है,पैर रखने के लिए बांस का दो पैर बनाया जाता है, जिसे पऊवा कहा जाता है। पऊवा के सहारे के लिए, पऊवा के नीचे ठोस लकड़ी लगाया जाता है, जिसे घोड़ी कहा जाता है। पऊवा व घोड़ी को नारियल की रस्सी से बंधा जाता है।
गेड़ी में आवाज लाने के लिए नारियल के रस्सी में थोड़ा मिट्टी का तेल डाला जाता है। ऐसी है हमारी छत्तीसगढ़ की संस्कृति……
(जैसा मेरे बुजुर्गों ने बताया है।) मैंने लिखने की कोशिश की है।